Lekhika Ranchi

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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःबिखरे मोती


दृष्टिकोण सुभद्रा कुमारी चौहान

(१)
निर्मला विश्व प्रेम की उपासिका थी। संसार में सब के लिए उसके भाव समान थे। उसके हृदय में अपने पराये का भेद-भाव न था । स्वभाव से ही वह मिलनसार, सरल, हंसमुख और नेक थी । साधारण पढ़ी लिखी थी । अंगरेजी में शायद मैट्रिक पास थी। परन्तु हिन्दी का उसे अच्छा ज्ञान था । साहित्य के संसार में उसका आदर था, और काव्यकुंज की वह एक मनोहारिणी कोकिला थी।

निर्मला का जीवन बहुत निर्मल था। वह दूसरों के आचरण को सदा भलाई की ही नज़र से देखती । यदि कोई उसके साथ बुराई भी करने आता तो निर्मला यही सोचती, कदाचित उद्देश्य बुरा न रहा हो; भूल से ही उसने ऐसा किया हो।

पतितों के लिए भी उसका हृदय उदार और क्षमा का भंडार था। यदि वह कभी किसी को कोई अनुचित काम करते देखती, तो भी वह उसका अपमान या तिरस्कार कभी न करती । प्रत्युत मधुरतर व्यवहारों से ही यह उन्हें समझाने और उनकी भूल को उन्हें समझा देने का प्रयत्न करती । कठोर वचन कह के किसी का जी दुखाना निर्मला ने सीखा ही न था । किन्तु इसके साथ ही साथ, जितना वह नम्र, सुशील और दयालु थीं उतनी ही वह आत्माभिमाननी, दृढ़निश्चयी और न्याय-प्रिय भी थी। नौकर-चाकरों के प्रति भी निर्मला का व्यवहार बहुत दया-पूर्ण होता । एक बार की बात है, उसके घर की एक कहारिन ने तेल चुराकर एक पत्थर की आड़ में रख दिया था। उसकी नीयत यह थी कि घर जाते समय वह बाहर के बाहर ही चुपचाप लेती चली जायगी । किसी कार्यवश रमाकान्त जो उसी समय वहाँ पहुँच गए; तेल पर उनकी दृष्टि पड़ी पत्नी को पुकारकर पूछा- "निर्मला यहाँ तेल किसने रखा हैं ?"

निर्मला ने पास ही खड़ी हुई कहारिन की ओर देखा; उसके चेहरे की रंगत स्पष्ट बतला रही थी कि यह काम उसी का है। किन्तु निर्मला ने पति को जवाब दिया-
"मैंने ही रख दिया होगा, उठाने की याद न रही होगी ?"
पति के जाने के बाद निर्मला ने कटोरे में जितना तेल था उतना ही और डालकर कहारिन को दे दिया और बोली-"जब जिस चीज की जरूरत पड़े, मांग लिया करो, मैंने कभी देने से इन्कार तो नहीं किया ?"
जो प्रभाव, कदाचित् डांट-फटकार से भी न पड़ता, वह निर्मला के इस मधुर और दयापूर्ण बर्ताव से पड़ा।

बाबू रमाकान्त जी का स्वभाव इसके बिल्कुल विपरीत था । थे तो वे डबल एम० ए०, एक कालेज के प्रोफ़ेसर, साहित्य-सेवी और देशभक्त, उज्वल चरित्र के नेक और उदार सज्जन पर फिर भी पति-पत्नी के स्वभाव में बहुत विभिन्नता थी। कोई चाहे सचे हृदय से भी उनकी भलाई करने आता तो भी उसमें उन्हें कुछ न कुछ बुराई जरूर देख पड़ती । वे सोचते इसकी तह में अवश्य ही कुछ न कुछ भेद है । कुछ न कुछ स्वार्थ होगा। तभी तो यह भलमनसाहत दिखाने आया है। नहीं तो मेरे पास आकर इसे ऐसी बात करने की आवश्यकता ही क्या पड़ी थी ?

पतितों को वे बड़ी घृणा की नजर से देखते; उनकी हंसी उड़ाते, गिरने वाले को एक धक्का देकर वे गिरा भले ही दें, किन्तु वह पकड़ कर उसे ऊपर उठा के अपना हाथ अपवित्र नहीं कर सकते थे। वे पतितों की छाया से भी दूर-दूर रहते थे । अपने निकट सम्बन्धियों की भलाई करने में यदि किसी दूसरे की कुछ हानि भी हो जाये तो इसमें उन्हें अफ़सोस न होता था। वे सज्जन होते हुए भी सजनता के कायल न थे। कोई उनके साथ बुराई करता तो उसके साथ उससे दूनी बुराई करने में उन्हें संकोच न होता था।

पति-पत्नी दोनों को अलग खड़ा करके यदि ढूंढा जाता तो अवगुण के नाम से उनमें तिल के बराबर भी धब्बा न मिलता ! वाह्य जगत में उनकी तरह सफल जोड़ा, उनके सदृश सुखी जीवन कदाचित् बहुत कम देख पड़ता । दूसरों को उनके सौभाग्य पर ईर्षा, होती थी। उनमें आपस में कभी किसी प्रकार का झगड़ा या अप्रिय व्यवहार न होता । फिर भी दोनों में पद-पद पर मतभेद होने के कारण उनका जीवन सुखी न रहने पाता।

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